से.रा. यात्री |
दहलीज के बाहर दो चमरौधे जूते पड़े देख कर मैं आगंतुक के विषय में कोई स्पष्ट अनुमान नहीं लगा पाया। मैंने दूर तक सोचा, पर मेरी स्मृति में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं उभरा जो ऐसे अनगढ़ जूते पहनता हो। मैंने समझा, कोई देहात का रिश्तेदार सरे राह इधर आ निकला है।
उत्सुकतावश मैं कमरे में चला गया। पीतल की कमानी का चश्मा लगाए एक वयोवृद्ध सज्जन सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। पिंडलियों से ऊपर तक एक मोटी चादर बतौर धोती लपेटे हुए थे और लंबे चोगे जैसा गाढ़े का कुर्ता पहने हुए थे। इतने मोटे-झोटे लिबास के बावजूद उनका शरीर बहुत दुर्बल लग रहा था। पूरी देह में सिर्फ मस्तक देखने से ऐसा लगता था कि कभी उनका स्वास्थ्य अच्छा रहा होगा।
मुझे सामने देख कर वह व्यस्तता से उठे और मुझे अपने आलिंगन में ले लिया। अपने स्नेह-पाश से मुक्त करने के बाद भी देर तक वह मेरी हथेलियों को स्नेह से दबाए रहे। उनकी आँखों में एक दर्दमंद और निश्छल मुस्कराहट उभर उठी। कई क्षण निस्तब्धता में बीत गए। फिर वह स्वयं ही बोले, 'पहचाना नहीं?'
उस आवाज में दिल पर दस्तक देने वाली खरज इतनी उम्र बीत जाने पर भी समाप्त नहीं हुई थी। मेरे मुँह से अनायास निकला, 'महाशय जी?'....
'हाँ, भाई!' कह कर वह गहरी आत्मीयता से मुस्कुराते रहे। लगभग तीस-बत्तीस वर्ष बीत चुके थे। उन्हें युगों बाद सामने देख कर मैं आश्चर्यचकित था। मैंने अपना अचरज दबाते हुए कहा, 'आपको पहचानना वाकई मुश्किल काम है। बदल भी तो कितना गए हैं इस बीच।'
मेरे शब्दों पर उन्होंने सहज भाव से कहा, 'बहुत कुछ बदल चुका है भाई! न जाने कितना कुछ तो अब ऐसा है, जिसकी शायद शिनाख्त ही नहीं हो सकती।'
उनके शब्दों से जैसे एक बहुत दूर छूटी हुई पहचान ताजा हो रही थी। मेरी दृष्टि सफेद बालों से भरे उनके हाथों और जीर्ण कलाइयों पर अटकी हुई थी। ओह! वास्तव में चीजें अपनी पहचान खोती चली जा रही हैं।
हालाँकि शब्दों से मैंने यही व्यक्त किया था कि महाशय जी बहुत बदल गए हैं, पर सच्चाई का एक दूसरा पक्ष भी था, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता था। उनके शरीर और आकार में चाहे जो परिवर्तन दीख पड़ता हो, उनके लिबास और व्यवहार में रत्ती-भर भी बदलाव नहीं आया था। वहीं गाँव के जुलाहे की बुनी हुई चादर धोती का काम दे रही थी। वही ढीला-ढाला मोटे गाढ़े का कुर्ता था। कोने में खड़ी गाँठदार लाठी भी शायद कई दशक पुरानी थी। चेहरा बहुत कोशिश पर ही पकड़ में आता था, तथापि मुस्कराहट आज भी बेलौस और रहमदिल थी। दाँत घिस कर छोटे पड़ गए थे, लेकिन उन्होंने महाशय जी का साथ नहीं छोड़ा था। प्रशस्त ललाट पर पड़ी रेखाएँ एक लंबा इतिहास सँजोए हुए थीं।
महाशय जी का सही परिचय देने के लिए मुझे सन बयालीस के तूफानी दौर में जाना पड़ेगा। मैं तब कुल जमा दसेक बरस का बच्चा था। उन दिनों हम लोग गाँव में ही रहते थे। मेरे बड़े भाई नहरवाई में मुलाजिम थे। हमारा लंबा-चौड़ा परिवार एक किसान के मकान में आधा हिस्सा ले कर रहता था। महाशय जी स्वराजी थे और किसानों को मालगुजारी तथा आबपाशी का महसूल जमा करने से रोकते थे। फलस्वरूप गाँव के गलियारों में बीहड़ दृश्य उपस्थित रहता था। मालगुजारी जमा न करने वाले किसानों के बर्तन-भांडे, बैल और दीगर सामान कुर्क अमीन के सिपाही मकान के बाहर ला-ला कर बेरहमी से इधर-उधर पटकते थे। महाशय जी का प्रभाव उन अनपढ़ देहातियों पर कुछ कम नहीं था। वह लुट जाना बरदाश्त कर जाते थे, मगर महाशय जी की बात नहीं टालते थे।
किसानों की औरतें गलियों में बिखरी अपनी दुनिया को देख कर छातियाँ पीट कर पछाड़ खाती थीं। बच्चे सहमे और धीरज खो कर बिलखते नजर आते थे, पर किसान कुर्क अमीन या उसके मातहत सिपाहियों की चिरौरी नहीं करते थे।
ठीक इसी क्षण पता नहीं कहाँ से महाशय जी प्रकट हो जाते थे। वह किसानों, उनकी औरतों और बच्चों को अभय करते हुए कहते थे, 'श्रीमान अमीन साहेब! इंसाफ का कम से कम इतनी बेदर्दी से तो खून मत कीजिए। जब इन लोगों को आपके आका जानवरों की तरह मेहनत-मशक्कत करा कर भी सूखी रोटी मुहैया नहीं कर सकते, तो उन्हें लगान वसूल करने का हक कहाँ बनता है? पहले आप अपनी सरकार से इन्हें रोटी, कपड़ा दिलवाइए और फिर मालगुजारी का जिक्र कीजिए।'
भाई के सरकारी नौकर होने के कारण हमारे दरवाजे पर गाँव के चौकीदार और मुखिया से ले कर उस क्षेत्र के थाना-इंचार्ज तक की आवाजाही बनी रहती थी। अगस्त-क्रांति के उन तूफानी दिनों में अंग्रेज बहादुर के ताबेदार बराबर कुछ न कुछ सूँघते चले आते थे। आसपास के सारे गाँवों में महाशय जी घूम-घूम कर आंदोलन की आग को भरपूर हवा दे रहे थे। किसानों को सरकार के विरूद्ध बहुत सफलता से उकसाया जा रहा था। किसी न किसी चौकी और थाने पर हर सुबह तिरंगा फहरता दिखाई दे जाता था, और विचित्र बात यह थी कि महाशय जी पुलिस की पूरी सर्तकता के बावजूद पकड़ में नहीं आ रहे थे। कई दफे उनके घर पर रात को छापा पड़ा। खुफिया पुलिस के लोग भी गाँवों में घूमते पाए गए, पर महाशय जी शासन के चौकन्नेपन को भेद कर अपना प्रचार बदस्तूर करते रहे।
महाशय जी के बार-बार बच निकलने के पीछे एक रहस्य था। महाशय जी की धर-पकड़ करने वाले पुलिस कर्मचारी सबसे पहले हमारे घर ही आते थे। उन्हें मेरे बड़े भाई साहब की सहायता पर पूरा विश्वास था। उनका अनुमान था कि सरकार के खैरख्वाह मेरे भाई महाशय जी की गतिविधियों पर गहरी नजर रखते होंगे और किसी दिन (वाहवाही लूटने के ख्याल से) उन्हें जरूर गिरफ्तार करवा देंगे। घर में सयाना बच्चा होने के कारण भाई ने मुझसे कह रखा था कि जैसे ही पुलिस हमारे दरवाजे पर दिखाई पड़े, छतों पर से होते हुए महाशय जी के घर में जा कर इत्तिला दे दिया करो और घर लौट आया करो। यह सिलसिला दिसंबर महीने तक सफलतापूर्वक चलता रहा।
महाशय जी का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। एक राजपूत परिवार में जन्म लेने के कारण वह श्रेष्ठ और कुलीन माने जाते थे। दहकते तांबें के रंग की लंबी-चौड़ी देह थी। कंधे बहुत मजबूत थे और खुला हुआ प्रशस्त ललाट देखने वाले को हठात अपनी ओर आकर्षित करता था। आँखों में बाँधने वाली चुंबकीय शक्ति थी, लेकिन अपनी जाति की श्रेष्ठता से वह कभी अभिभूत नहीं होते थे, बल्कि जो कुछ वह करते थे, उससे उनकी बिरादरी को सख्त तकलीफ होती थी।
हरिजन, जिन्हें गाँव के सीमांत पर रहने के लिए मजबूर किया गया था, महाशय जी के परम स्नेही थे। उनकी ऊबड़-खाबड़ गलियों में वह उनके साथ लग कर सफाई करते थे। रात को हाथ में जलती लालटेन लटकाए वह गलियों से गुजरते दिखाई पड़ते थे और चमरटोली में जा कर रात्रि पाठशाला चलाते थे। ठाकुरों और हरिजनों में जब भी कोई तकरार होती थी, महाशय जी आगे आ कर सिर फुटौवल के अवसर बचा जाते थे।
महाशय जी के माता-पिता उन्हें बहुत छोटा छोड़ कर मर गए थे। वह अपने एकमात्र चाचा के साथ रहते थे। उस जमाने में चाचा के बच्चे नाबालिग थे, इसलिए चाचा महाशय जी से उम्मीद करते थे कि उन्हें खेत के काम में भी थोड़ा हाथ बँटाना चाहिए। दुनिया-भर के दुख-दर्द में डूब जाने से अपनी क्या भलाई होगी! महाशय जी के चाचा बड़बड़ाते रहते थे, लेकिन वह अपने भतीजे को प्यार भी बहुत करते थे। जाति-बिरादरी वालों की आलोचना पर भी कभी कान नहीं देते थे। महाशय जी को सामाजिक-राजनीतिक काम करने की उन्होंने खुली छूट दे रखी थी।
यह महाशय जी का ही प्रताप था कि उनकी प्रेरणा से गाँव के छोटे-छोटे बच्चे तक हाथों में रंग-बिरंगी झंडियों और सरकंडों पर लिपटे पोस्टर ले कर गाँव की गलियों में 'इंकिलास जिंदाबाग' के नारे लगाते बेखौफ घूमते थे। गाँव के मुखिया और चौकीदार का डराना-धमकाना भी कोई काम नहीं आता था।
बयालिस के दिसंबर के आखिरी दिन थे कि गाँव की गलियों में एक सुबह शोर मच गया, 'महाशय जी पकड़े गए, महाशय जी पकड़े गए!' उनकी गिरफ्तारी से सारे वातावरण में सनसनी फैल गई। जिस समय पुलिस की गाड़ी उन्हें ले कर जानेवाली थी, सैकड़ों ग्रामीण उन्हें घेर कर खड़े हो गए। आँखें मलते हुए शीत में सिसियाते बच्चे तक 'पुलिस जीप' के आसपास मँडराने लगे। वह दृश्य मेरी आँखों में आज फिर से उभर उठा, जब महाशय जी पुलिस अधिकारियों के बीच में खड़े हो कर मुस्करा कर बातें कर रहे थे। भय तो उनके आस-पास फटक ही नहीं सकता था। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था, जैसे वह किसी शानदार दावत में जा रहे हों। पैरों में लंबे-चौड़े चमरौधे थे और कंधों पर खादी आश्रम का मोटा खुरदरा कंबल पड़ा था।
महाशय जी पुलिस की गाड़ी में सवार होने को थे कि तभी उनके अधेड़ चाचा रस्सी में जकड़ा हुआ बिस्तर और खादी का एक झोला लिए आते दिखाई पड़े। झोले में महाशय जी के चाचा संभवत: कुछ खाने का सामान लाए थे। महाशय जी ने अपने चाचा जी के पैर छुए और पुलिस की गाड़ी में सवार हो गए। गाड़ी के पीछे खड़ी भीड़ को उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और 'इंकिलाब' का नारा लगाया। इसी समय पुलिस की गाड़ी रजबाहे की पटरी पर धूल उड़ाती चल दी।
इस घटना के बाद महाशय जी के जेल से छूटने और उसके बाद के राजनीतिक जीवन का इतिहास मुझे मालूम नहीं। बड़े भाई का तबादला कहीं और हो गया और मैं भी इधर-उधर पढ़ता रहा। उनका वास्तविक नाम वैसे कुछ और ही था। इसलिए स्वतंत्र भारत की राजनीति से जुड़े नामों में भी उनकी तलाश संभव नहीं थी।
उन्हीं महाशय जी को इतने वर्षों के अंतराल पर अपने कमरे में देख कर मैं स्तब्ध रह गया। मुझे बहुत-सी बातें एकसाथ जानने की उत्सुकता हुई। सबसे पहले मैंने उनके घर-परिवार के संबंध में पूछा। वे बतलाने लगे, 'चाचा को मरे हुए बहुत वक्त बीत गया। उनके लड़के खेती-बाड़ी में लग गए हैं। मेरे हिस्से में जो जमीन थी, उसमें से मैंने बीस बीघा ले ली थी। दस बीघा भूदान में दे दी और बाकी में एक प्राइमरी स्कूल खोल कर अध्यापकों की रिहायश कर दी है। थोड़ी जमीन पर साग-सब्जी हो जाती है, उसी में बच्चों के लिए एक छोटा-सा मैदान भी निकल आया है।'
मैंने अपने मन में छिपी हुई जिज्ञासा बहुत मजाकिया लहजे में व्यक्त की, 'महाशय जी! आप अभी भी वहीं अटके हुए हैं? आपकी उपयोगिता तो किसी व्यापक क्षेत्र में थी। आप देश की किसी बड़ी योजना में क्यों नहीं लगे? इतने लंबे वक्त तक राजनीति में सक्रिय रहने के बाद आपको किसी देशव्यापी काम में लगना चाहिए था।'
महाशय जी के चेहरे पर क्षीण मुस्कान उभरी। उन्होंने व्यंग्य की शक्ल में व्यक्त की गई मेरी जिज्ञासा को अपनी सहजता से काट दिया, 'भैया! गाँव-देहात में भी काम की कमी तो है नहीं। कोरी, लुहार, बढ़ई और दूसरे कारीगरों के धंधे मरते जा रहे हैं। जिसे देखो, शहरों की तरफ भागा चला जा रहा है। मैंने ऐसा इंतजाम किया है कि स्कूल में ही तेरह-चौदह साल की उमर तक बच्चे कुछ हाथ का काम सीख जाएँ। मैं आए दिन देखता हूँ कि किसानों के लड़के ऊँची डिग्रियाँ ले कर गाँव में जाने से कतराते हैं और उन्हें शहर में हजार धक्के खा कर भी कोई ढंग की नौकरी नहीं मिलती। इन हालात में असंतोष बराबर बढ़ रहा है। पढ़ाई तो वही अच्छी है, जो साथ ही साथ रोजगार में बदल जाए। यह क्या दीक्षा हुई जो अच्छे-खासे जवान-जहान आदमी को अपाहिज बना दे।'
मुझे महाशय जी के विचार बहुत स्पष्ट और दूरगामी लगे। मुझे एहसास हुआ कि वह राजनीति के मारक द्वंद्वों और सत्ता से बहुत दूर हैं। पद और प्रभुता का उन्हें गुमान तक नहीं है।
महाशय जी उठ कर खड़े हो गए और मेरा कंधा थपथपा कर बोले, 'अच्छा भाई! अब मैं चलता हूँ। एक अखबार में तुम्हारा नाम और पता देखा था। बहुत दिनों से मिलने की इच्छा थी, सो चला आया। लिख-पढ़ रहे हो यह बड़ा पुनीत कार्य है। गाँव के लोगों के लिए भी तो कुछ लिखना चाहिए। उन सबको तुम्हारा बड़ा इंतजार है। कभी जल्दी ही अवसर निकाल कर गाँव के लोगों से मिलने आना। क्या अपना बचपन तुम्हें कभी हम लोगों की याद नहीं दिलाता?'
उनके मुँह से एक ऐसी मनुहार-भरी प्रतीक्षा की बात सुन कर मैं एकाएक संकुचित हो उठा। मुझे हया की अनुभूति हुई कि मैंने इतने लंबे अर्से में महाशय जी के बारे में कुछ जानने की कोशिश क्यों नहीं की! महाशय जी आज भी अपने वातावरण और भूमि से कितने सार्थक ढंग से जुड़े हुए हैं!
मैंने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह हँसते हुए बोले, 'मिलना था सो हो गया। तुम्हें देख कर मन को बड़ा सुख मिला। अब चलता हूँ। तुम सपरिवार गाँव आना और कुछ दिन ठहरना।'
महाशय जी जाने लगे तो मैंने उनके दुर्बल शरीर को ध्यान से देखा। एक वक्त था जब उनकी देह बहुत शक्तिशाली थी, लेकिन हाँ, उनके कंधे आज भी सीधे और मजबूत थे। गर्दन उठी हुई थी। उन्नत ललाट पर जो भी रेखाएँ थी, उनमें पूरे युग का इतिहास अंकित था।
सहसा मुझे उन अँधेरी रातों की याद आ गई, जब वीरान गलियों में महाशय जी जलती लालटेन हाथ में उठाए निरक्षर किसानों और भूमिहीन मजदूरों को अक्षर ज्ञान देने जाया करते थे। मुझे लगा कि महाशय जी निर्जन टापू पर अकेले हैं, लेकिन उस वीराने को आबाद करने का संकल्प अभी भी उनके साथ है।
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Thursday, February 9, 2017
टापू पर अकेले
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