से.रा. यात्री |
दहलीज के बाहर दो चमरौधे जूते पड़े देख कर मैं आगंतुक के विषय में कोई स्पष्ट अनुमान नहीं लगा पाया। मैंने दूर तक सोचा, पर मेरी स्मृति में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं उभरा जो ऐसे अनगढ़ जूते पहनता हो। मैंने समझा, कोई देहात का रिश्तेदार सरे राह इधर आ निकला है।
उत्सुकतावश मैं कमरे में चला गया। पीतल की कमानी का चश्मा लगाए एक वयोवृद्ध सज्जन सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। पिंडलियों से ऊपर तक एक मोटी चादर बतौर धोती लपेटे हुए थे और लंबे चोगे जैसा गाढ़े का कुर्ता पहने हुए थे। इतने मोटे-झोटे लिबास के बावजूद उनका शरीर बहुत दुर्बल लग रहा था। पूरी देह में सिर्फ मस्तक देखने से ऐसा लगता था कि कभी उनका स्वास्थ्य अच्छा रहा होगा।
मुझे सामने देख कर वह व्यस्तता से उठे और मुझे अपने आलिंगन में ले लिया। अपने स्नेह-पाश से मुक्त करने के बाद भी देर तक वह मेरी हथेलियों को स्नेह से दबाए रहे। उनकी आँखों में एक दर्दमंद और निश्छल मुस्कराहट उभर उठी। कई क्षण निस्तब्धता में बीत गए। फिर वह स्वयं ही बोले, 'पहचाना नहीं?'
उस आवाज में दिल पर दस्तक देने वाली खरज इतनी उम्र बीत जाने पर भी समाप्त नहीं हुई थी। मेरे मुँह से अनायास निकला, 'महाशय जी?'....
'हाँ, भाई!' कह कर वह गहरी आत्मीयता से मुस्कुराते रहे। लगभग तीस-बत्तीस वर्ष बीत चुके थे। उन्हें युगों बाद सामने देख कर मैं आश्चर्यचकित था। मैंने अपना अचरज दबाते हुए कहा, 'आपको पहचानना वाकई मुश्किल काम है। बदल भी तो कितना गए हैं इस बीच।'
मेरे शब्दों पर उन्होंने सहज भाव से कहा, 'बहुत कुछ बदल चुका है भाई! न जाने कितना कुछ तो अब ऐसा है, जिसकी शायद शिनाख्त ही नहीं हो सकती।'
उनके शब्दों से जैसे एक बहुत दूर छूटी हुई पहचान ताजा हो रही थी। मेरी दृष्टि सफेद बालों से भरे उनके हाथों और जीर्ण कलाइयों पर अटकी हुई थी। ओह! वास्तव में चीजें अपनी पहचान खोती चली जा रही हैं।
हालाँकि शब्दों से मैंने यही व्यक्त किया था कि महाशय जी बहुत बदल गए हैं, पर सच्चाई का एक दूसरा पक्ष भी था, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता था। उनके शरीर और आकार में चाहे जो परिवर्तन दीख पड़ता हो, उनके लिबास और व्यवहार में रत्ती-भर भी बदलाव नहीं आया था। वहीं गाँव के जुलाहे की बुनी हुई चादर धोती का काम दे रही थी। वही ढीला-ढाला मोटे गाढ़े का कुर्ता था। कोने में खड़ी गाँठदार लाठी भी शायद कई दशक पुरानी थी। चेहरा बहुत कोशिश पर ही पकड़ में आता था, तथापि मुस्कराहट आज भी बेलौस और रहमदिल थी। दाँत घिस कर छोटे पड़ गए थे, लेकिन उन्होंने महाशय जी का साथ नहीं छोड़ा था। प्रशस्त ललाट पर पड़ी रेखाएँ एक लंबा इतिहास सँजोए हुए थीं।
महाशय जी का सही परिचय देने के लिए मुझे सन बयालीस के तूफानी दौर में जाना पड़ेगा। मैं तब कुल जमा दसेक बरस का बच्चा था। उन दिनों हम लोग गाँव में ही रहते थे। मेरे बड़े भाई नहरवाई में मुलाजिम थे। हमारा लंबा-चौड़ा परिवार एक किसान के मकान में आधा हिस्सा ले कर रहता था। महाशय जी स्वराजी थे और किसानों को मालगुजारी तथा आबपाशी का महसूल जमा करने से रोकते थे। फलस्वरूप गाँव के गलियारों में बीहड़ दृश्य उपस्थित रहता था। मालगुजारी जमा न करने वाले किसानों के बर्तन-भांडे, बैल और दीगर सामान कुर्क अमीन के सिपाही मकान के बाहर ला-ला कर बेरहमी से इधर-उधर पटकते थे। महाशय जी का प्रभाव उन अनपढ़ देहातियों पर कुछ कम नहीं था। वह लुट जाना बरदाश्त कर जाते थे, मगर महाशय जी की बात नहीं टालते थे।
किसानों की औरतें गलियों में बिखरी अपनी दुनिया को देख कर छातियाँ पीट कर पछाड़ खाती थीं। बच्चे सहमे और धीरज खो कर बिलखते नजर आते थे, पर किसान कुर्क अमीन या उसके मातहत सिपाहियों की चिरौरी नहीं करते थे।
ठीक इसी क्षण पता नहीं कहाँ से महाशय जी प्रकट हो जाते थे। वह किसानों, उनकी औरतों और बच्चों को अभय करते हुए कहते थे, 'श्रीमान अमीन साहेब! इंसाफ का कम से कम इतनी बेदर्दी से तो खून मत कीजिए। जब इन लोगों को आपके आका जानवरों की तरह मेहनत-मशक्कत करा कर भी सूखी रोटी मुहैया नहीं कर सकते, तो उन्हें लगान वसूल करने का हक कहाँ बनता है? पहले आप अपनी सरकार से इन्हें रोटी, कपड़ा दिलवाइए और फिर मालगुजारी का जिक्र कीजिए।'
भाई के सरकारी नौकर होने के कारण हमारे दरवाजे पर गाँव के चौकीदार और मुखिया से ले कर उस क्षेत्र के थाना-इंचार्ज तक की आवाजाही बनी रहती थी। अगस्त-क्रांति के उन तूफानी दिनों में अंग्रेज बहादुर के ताबेदार बराबर कुछ न कुछ सूँघते चले आते थे। आसपास के सारे गाँवों में महाशय जी घूम-घूम कर आंदोलन की आग को भरपूर हवा दे रहे थे। किसानों को सरकार के विरूद्ध बहुत सफलता से उकसाया जा रहा था। किसी न किसी चौकी और थाने पर हर सुबह तिरंगा फहरता दिखाई दे जाता था, और विचित्र बात यह थी कि महाशय जी पुलिस की पूरी सर्तकता के बावजूद पकड़ में नहीं आ रहे थे। कई दफे उनके घर पर रात को छापा पड़ा। खुफिया पुलिस के लोग भी गाँवों में घूमते पाए गए, पर महाशय जी शासन के चौकन्नेपन को भेद कर अपना प्रचार बदस्तूर करते रहे।
महाशय जी के बार-बार बच निकलने के पीछे एक रहस्य था। महाशय जी की धर-पकड़ करने वाले पुलिस कर्मचारी सबसे पहले हमारे घर ही आते थे। उन्हें मेरे बड़े भाई साहब की सहायता पर पूरा विश्वास था। उनका अनुमान था कि सरकार के खैरख्वाह मेरे भाई महाशय जी की गतिविधियों पर गहरी नजर रखते होंगे और किसी दिन (वाहवाही लूटने के ख्याल से) उन्हें जरूर गिरफ्तार करवा देंगे। घर में सयाना बच्चा होने के कारण भाई ने मुझसे कह रखा था कि जैसे ही पुलिस हमारे दरवाजे पर दिखाई पड़े, छतों पर से होते हुए महाशय जी के घर में जा कर इत्तिला दे दिया करो और घर लौट आया करो। यह सिलसिला दिसंबर महीने तक सफलतापूर्वक चलता रहा।
महाशय जी का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। एक राजपूत परिवार में जन्म लेने के कारण वह श्रेष्ठ और कुलीन माने जाते थे। दहकते तांबें के रंग की लंबी-चौड़ी देह थी। कंधे बहुत मजबूत थे और खुला हुआ प्रशस्त ललाट देखने वाले को हठात अपनी ओर आकर्षित करता था। आँखों में बाँधने वाली चुंबकीय शक्ति थी, लेकिन अपनी जाति की श्रेष्ठता से वह कभी अभिभूत नहीं होते थे, बल्कि जो कुछ वह करते थे, उससे उनकी बिरादरी को सख्त तकलीफ होती थी।
हरिजन, जिन्हें गाँव के सीमांत पर रहने के लिए मजबूर किया गया था, महाशय जी के परम स्नेही थे। उनकी ऊबड़-खाबड़ गलियों में वह उनके साथ लग कर सफाई करते थे। रात को हाथ में जलती लालटेन लटकाए वह गलियों से गुजरते दिखाई पड़ते थे और चमरटोली में जा कर रात्रि पाठशाला चलाते थे। ठाकुरों और हरिजनों में जब भी कोई तकरार होती थी, महाशय जी आगे आ कर सिर फुटौवल के अवसर बचा जाते थे।
महाशय जी के माता-पिता उन्हें बहुत छोटा छोड़ कर मर गए थे। वह अपने एकमात्र चाचा के साथ रहते थे। उस जमाने में चाचा के बच्चे नाबालिग थे, इसलिए चाचा महाशय जी से उम्मीद करते थे कि उन्हें खेत के काम में भी थोड़ा हाथ बँटाना चाहिए। दुनिया-भर के दुख-दर्द में डूब जाने से अपनी क्या भलाई होगी! महाशय जी के चाचा बड़बड़ाते रहते थे, लेकिन वह अपने भतीजे को प्यार भी बहुत करते थे। जाति-बिरादरी वालों की आलोचना पर भी कभी कान नहीं देते थे। महाशय जी को सामाजिक-राजनीतिक काम करने की उन्होंने खुली छूट दे रखी थी।
यह महाशय जी का ही प्रताप था कि उनकी प्रेरणा से गाँव के छोटे-छोटे बच्चे तक हाथों में रंग-बिरंगी झंडियों और सरकंडों पर लिपटे पोस्टर ले कर गाँव की गलियों में 'इंकिलास जिंदाबाग' के नारे लगाते बेखौफ घूमते थे। गाँव के मुखिया और चौकीदार का डराना-धमकाना भी कोई काम नहीं आता था।
बयालिस के दिसंबर के आखिरी दिन थे कि गाँव की गलियों में एक सुबह शोर मच गया, 'महाशय जी पकड़े गए, महाशय जी पकड़े गए!' उनकी गिरफ्तारी से सारे वातावरण में सनसनी फैल गई। जिस समय पुलिस की गाड़ी उन्हें ले कर जानेवाली थी, सैकड़ों ग्रामीण उन्हें घेर कर खड़े हो गए। आँखें मलते हुए शीत में सिसियाते बच्चे तक 'पुलिस जीप' के आसपास मँडराने लगे। वह दृश्य मेरी आँखों में आज फिर से उभर उठा, जब महाशय जी पुलिस अधिकारियों के बीच में खड़े हो कर मुस्करा कर बातें कर रहे थे। भय तो उनके आस-पास फटक ही नहीं सकता था। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था, जैसे वह किसी शानदार दावत में जा रहे हों। पैरों में लंबे-चौड़े चमरौधे थे और कंधों पर खादी आश्रम का मोटा खुरदरा कंबल पड़ा था।
महाशय जी पुलिस की गाड़ी में सवार होने को थे कि तभी उनके अधेड़ चाचा रस्सी में जकड़ा हुआ बिस्तर और खादी का एक झोला लिए आते दिखाई पड़े। झोले में महाशय जी के चाचा संभवत: कुछ खाने का सामान लाए थे। महाशय जी ने अपने चाचा जी के पैर छुए और पुलिस की गाड़ी में सवार हो गए। गाड़ी के पीछे खड़ी भीड़ को उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और 'इंकिलाब' का नारा लगाया। इसी समय पुलिस की गाड़ी रजबाहे की पटरी पर धूल उड़ाती चल दी।
इस घटना के बाद महाशय जी के जेल से छूटने और उसके बाद के राजनीतिक जीवन का इतिहास मुझे मालूम नहीं। बड़े भाई का तबादला कहीं और हो गया और मैं भी इधर-उधर पढ़ता रहा। उनका वास्तविक नाम वैसे कुछ और ही था। इसलिए स्वतंत्र भारत की राजनीति से जुड़े नामों में भी उनकी तलाश संभव नहीं थी।
उन्हीं महाशय जी को इतने वर्षों के अंतराल पर अपने कमरे में देख कर मैं स्तब्ध रह गया। मुझे बहुत-सी बातें एकसाथ जानने की उत्सुकता हुई। सबसे पहले मैंने उनके घर-परिवार के संबंध में पूछा। वे बतलाने लगे, 'चाचा को मरे हुए बहुत वक्त बीत गया। उनके लड़के खेती-बाड़ी में लग गए हैं। मेरे हिस्से में जो जमीन थी, उसमें से मैंने बीस बीघा ले ली थी। दस बीघा भूदान में दे दी और बाकी में एक प्राइमरी स्कूल खोल कर अध्यापकों की रिहायश कर दी है। थोड़ी जमीन पर साग-सब्जी हो जाती है, उसी में बच्चों के लिए एक छोटा-सा मैदान भी निकल आया है।'
मैंने अपने मन में छिपी हुई जिज्ञासा बहुत मजाकिया लहजे में व्यक्त की, 'महाशय जी! आप अभी भी वहीं अटके हुए हैं? आपकी उपयोगिता तो किसी व्यापक क्षेत्र में थी। आप देश की किसी बड़ी योजना में क्यों नहीं लगे? इतने लंबे वक्त तक राजनीति में सक्रिय रहने के बाद आपको किसी देशव्यापी काम में लगना चाहिए था।'
महाशय जी के चेहरे पर क्षीण मुस्कान उभरी। उन्होंने व्यंग्य की शक्ल में व्यक्त की गई मेरी जिज्ञासा को अपनी सहजता से काट दिया, 'भैया! गाँव-देहात में भी काम की कमी तो है नहीं। कोरी, लुहार, बढ़ई और दूसरे कारीगरों के धंधे मरते जा रहे हैं। जिसे देखो, शहरों की तरफ भागा चला जा रहा है। मैंने ऐसा इंतजाम किया है कि स्कूल में ही तेरह-चौदह साल की उमर तक बच्चे कुछ हाथ का काम सीख जाएँ। मैं आए दिन देखता हूँ कि किसानों के लड़के ऊँची डिग्रियाँ ले कर गाँव में जाने से कतराते हैं और उन्हें शहर में हजार धक्के खा कर भी कोई ढंग की नौकरी नहीं मिलती। इन हालात में असंतोष बराबर बढ़ रहा है। पढ़ाई तो वही अच्छी है, जो साथ ही साथ रोजगार में बदल जाए। यह क्या दीक्षा हुई जो अच्छे-खासे जवान-जहान आदमी को अपाहिज बना दे।'
मुझे महाशय जी के विचार बहुत स्पष्ट और दूरगामी लगे। मुझे एहसास हुआ कि वह राजनीति के मारक द्वंद्वों और सत्ता से बहुत दूर हैं। पद और प्रभुता का उन्हें गुमान तक नहीं है।
महाशय जी उठ कर खड़े हो गए और मेरा कंधा थपथपा कर बोले, 'अच्छा भाई! अब मैं चलता हूँ। एक अखबार में तुम्हारा नाम और पता देखा था। बहुत दिनों से मिलने की इच्छा थी, सो चला आया। लिख-पढ़ रहे हो यह बड़ा पुनीत कार्य है। गाँव के लोगों के लिए भी तो कुछ लिखना चाहिए। उन सबको तुम्हारा बड़ा इंतजार है। कभी जल्दी ही अवसर निकाल कर गाँव के लोगों से मिलने आना। क्या अपना बचपन तुम्हें कभी हम लोगों की याद नहीं दिलाता?'
उनके मुँह से एक ऐसी मनुहार-भरी प्रतीक्षा की बात सुन कर मैं एकाएक संकुचित हो उठा। मुझे हया की अनुभूति हुई कि मैंने इतने लंबे अर्से में महाशय जी के बारे में कुछ जानने की कोशिश क्यों नहीं की! महाशय जी आज भी अपने वातावरण और भूमि से कितने सार्थक ढंग से जुड़े हुए हैं!
मैंने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह हँसते हुए बोले, 'मिलना था सो हो गया। तुम्हें देख कर मन को बड़ा सुख मिला। अब चलता हूँ। तुम सपरिवार गाँव आना और कुछ दिन ठहरना।'
महाशय जी जाने लगे तो मैंने उनके दुर्बल शरीर को ध्यान से देखा। एक वक्त था जब उनकी देह बहुत शक्तिशाली थी, लेकिन हाँ, उनके कंधे आज भी सीधे और मजबूत थे। गर्दन उठी हुई थी। उन्नत ललाट पर जो भी रेखाएँ थी, उनमें पूरे युग का इतिहास अंकित था।
सहसा मुझे उन अँधेरी रातों की याद आ गई, जब वीरान गलियों में महाशय जी जलती लालटेन हाथ में उठाए निरक्षर किसानों और भूमिहीन मजदूरों को अक्षर ज्ञान देने जाया करते थे। मुझे लगा कि महाशय जी निर्जन टापू पर अकेले हैं, लेकिन उस वीराने को आबाद करने का संकल्प अभी भी उनके साथ है।
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Thursday, February 9, 2017
टापू पर अकेले
Tuesday, May 26, 2015
चार आने का हिसाब
बहुत समय पहले की बात है , चंदनपुर का राजा बड़ा प्रतापी था , दूर-दूर तक उसकी समृद्धि की चर्चाएं होती थी, उसके महल में हर एक सुख-सुविधा की वस्तु उपलब्ध थी पर फिर भी अंदर से उसका मन अशांत रहता था। उसने कई ज्योतिषियों और पंडितों से इसका कारण जानना चाहा, बहुत से विद्वानो से मिला, किसी ने कोई अंगूठी पहनाई तो किसी ने यज्ञ कराए , पर फिर भी राजा का दुःख दूर नहीं हुआ, उसे शांति नहीं मिली।
एक दिन भेष बदल कर राजा अपने राज्य की सैर पर निकला। घूमते- घूमते वह एक खेत के निकट से गुजरा , तभी उसकी नज़र एक किसान पर पड़ी , किसान ने फटे-पुराने वस्त्र धारण कर रखे थे और वह पेड़ की छाँव में बैठ कर भोजन कर रहा था।
किसान के वस्त्र देख राजा के मन में आया कि वह किसान को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दे दे ताकि उसके जीवन मे कुछ खुशियां आ पाये।
राजा किसान के सम्मुख जा कर बोला – ” मैं एक राहगीर हूँ , मुझे तुम्हारे खेत पर ये चार स्वर्ण मुद्राएँ गिरी मिलीं , चूँकि यह खेत तुम्हारा है इसलिए ये मुद्राएं तुम ही रख लो। “
किसान – ” ना – ना सेठ जी , ये मुद्राएं मेरी नहीं हैं , इसे आप ही रखें या किसी और को दान कर दें , मुझे इनकी कोई आवश्यकता नहीं। “
किसान की यह प्रतिक्रिया राजा को बड़ी अजीब लगी , वह बोला , ” धन की आवश्यकता किसे नहीं होती भला आप लक्ष्मी को ना कैसे कर सकते हैं ?”
“सेठ जी , मैं रोज चार आने कमा लेता हूँ , और उतने में ही प्रसन्न रहता हूँ… “, किसान बोला।
“क्या ? आप सिर्फ चार आने की कमाई करते हैं , और उतने में ही प्रसन्न रहते हैं , यह कैसे संभव है !” , राजा ने अचरज से पुछा।
” सेठ जी”, किसान बोला ,” प्रसन्नता इस बात पर निर्भर नहीं करती की आप कितना कमाते हैं या आपके पास कितना धन है …. प्रसन्नता उस धन के प्रयोग पर निर्भर करती है। “
” तो तुम इन चार आने का क्या-क्या कर लेते हो ?, राजा ने उपहास के लहजे में प्रश्न किया।
किसान भी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहता था उसने आगे बढ़ते हुए उत्तर दिया , ”
इन चार आनो में से एक मैं कुएं में डाल देता हूँ , दुसरे से कर्ज चुका देता हूँ , तीसरा उधार में दे देता हूँ और चौथा मिटटी में गाड़ देता हूँ ….”
इन चार आनो में से एक मैं कुएं में डाल देता हूँ , दुसरे से कर्ज चुका देता हूँ , तीसरा उधार में दे देता हूँ और चौथा मिटटी में गाड़ देता हूँ ….”
राजा सोचने लगा , उसे यह उत्तर समझ नहीं आया। वह किसान से इसका अर्थ पूछना चाहता था , पर वो जा चुका था।
राजा ने अगले दिन ही सभा बुलाई और पूरे दरबार में कल की घटना कह सुनाई और सबसे किसान के उस कथन का अर्थ पूछने लगा।
दरबारियों ने अपने-अपने तर्क पेश किये पर कोई भी राजा को संतुष्ट नहीं कर पाया , अंत में किसान को ही दरबार में बुलाने का निर्णय लिया गया।
बहुत खोज-बीन के बाद किसान मिला और उसे कल की सभा में प्रस्तुत होने का निर्देश दिया गया।
राजा ने किसान को उस दिन अपने भेष बदल कर भ्रमण करने के बारे में बताया और सम्मान पूर्वक दरबार में बैठाया।
” मैं तुम्हारे उत्तर से प्रभावित हूँ , और तुम्हारे चार आने का हिसाब जानना चाहता हूँ; बताओ, तुम अपने कमाए चार आने किस तरह खर्च करते हो जो तुम इतना प्रसन्न और संतुष्ट रह पाते हो ?” , राजा ने प्रश्न किया।
किसान बोला ,” हुजूर , जैसा की मैंने बताया था , मैं एक आना कुएं में डाल देता हूँ , यानि अपने परिवार के भरण-पोषण में लगा देता हूँ, दुसरे से मैं कर्ज चुकता हूँ , यानि इसे मैं अपने वृद्ध माँ-बाप की सेवा में लगा देता हूँ , तीसरा मैं उधार दे देता हूँ , यानि अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में लगा देता हूँ, और चौथा मैं मिटटी में गाड़ देता हूँ , यानि मैं एक पैसे की बचत कर लेता हूँ ताकि समय आने पर मुझे किसी से माँगना ना पड़े और मैं इसे धार्मिक ,सामजिक या अन्य आवश्यक कार्यों में लगा सकूँ। “
राजा को अब किसान की बात समझ आ चुकी थी। राजा की समस्या का समाधान हो चुका था , वह जान चुका था की यदि उसे प्रसन्न एवं संतुष्ट रहना है तो उसे भी अपने अर्जित किये धन का सही-सही उपयोग करना होगा।
मित्रों, देखा जाए तो पहले की अपेक्षा लोगों की आमदनी बढ़ी है पर क्या उसी अनुपात में हमारी प्रसन्नता भी बढ़ी है ? पैसों के मामलों में हम कहीं न कहीं गलती कर रहे हैं , लाइफ को बैलेंस्ड बनाना ज़रूरी है और इसके लिए हमें अपनी आमदनी और उसके इस्तेमाल पर ज़रूर गौर करना चाहिए, नहीं तो भले हम लाखों रूपये कमा लें पर फिर भी प्रसन्न एवं संतुष्ट नहीं रह पाएंगे !
मूर्ख गधा
एक बार दो गधे अपनी पीठ पर बोझा उठाये चले जा रहे थे, उनको काफी लंबा सफर तय करना था.. एक गधे की पीठ पर नमक की भारी बोरियां लदी हुई थीं तो एक की पीठ पर रूई की बोरियां लदी हुई थीं.
जिस रास्ते से वो जा रहे थे उस बीच में एक नदी पड़ी, नदी के ऊपर रेत की बोरियों का कच्चा पुल बना हुआ था.. जिस गधे की पीठ पर नमक की बोरियां थीं, उसका पैर बुरी तरह से फिसल गया और वह नदी के अंदर गिर पड़ा.. नदी में गिरते ही नमक पानी में घुल गया और उसका वजन हल्का हो गया.. वह यह बात बड़ी प्रसन्नता से दुसरे को बताने लगा.. दुसरे गधे ने सोचा कि यह तो बढ़िया युक्ति है, ऐसे में तो मैं भी अपना भार काफी कम कर सकता हूँ और उसने बिना सोचे समझे पानी में छलांग लगा दी, किन्तु रूई के पानी सोख लेने के कारण उसका भार कम होने की जगह बहुत बढ़ गया, जिस कारण वह मुर्ख गधा पानी में डूब गया।
एक संत यह सारा किस्सा अपने शिष्यों के साथ देख रहे थे, उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- “मनुष्य को सदा अपना विवेक जागृत रखना चाहिए, बिना अपनी बुद्धि लगाए दूसरों की नकल कर वैसा ही करने वाले सदा उपहास के पात्र बनते हैं। ”
मित्रों हमारी असल जिंदगी में भी यही बात लागू होती है, हम किसी को एक क्षेत्र में सफल होते देख उसे कॉपी करना शुरू कर देते हैं, हमे लगता है कि यदि कोई बंदा अपने क्षेत्र में सफल हो गया तो हमे भी उस क्षेत्र में सफलता मिल जायेगी लेकिन हम शायद यह ध्यान नहीं देते कि उसके पीठ पर नमक वाली बोरी है मतलब उसका इंटरेस्ट अलग है और भूलवश हम रूई की बोरी को लादे छलांग लगा देते हैं मतलब दूसरा टैलेंट या इंटरेस्ट को लादे उस क्षेत्र में सफल होने का ख्वाब देखते है, और अंततः हमें पछताना पड़ता है। इसलिए , दूसरों को देखकर सीखना ठीक है पर उनका अँधा अनुसरण करना उस मूर्ख गधे के समान व्यवहार करना है।
Monday, May 25, 2015
शिकंजी का स्वाद
एक कालेज स्टूडेंट था जिसका नाम था रवि। वह बहुत चुपचाप सा रहता था। किसी से ज्यादा बात नहीं करता था इसलिए उसका कोई दोस्त भी नहीं था। वह हमेशा कुछ परेशान सा रहता था। पर लोग उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे।
एक दिन वह क्लास में पढ़ रहा था। उसे गुमसुम बैठे देख कर सर उसके पास आये और क्लास के बाद मिलने को कहा।
एक दिन वह क्लास में पढ़ रहा था। उसे गुमसुम बैठे देख कर सर उसके पास आये और क्लास के बाद मिलने को कहा।
क्लास खत्म होते ही रवि सर के रूम में पहुंचा।
” रवि मैं देखता हूँ कि तुम अक्सर बड़े गुमसुम और शांत बैठे रहते हो , ना किसी से बात करते हो और ना ही किसी चीज में रूचि दिखाते हो ! इसका क्या कारण है ?” , सर ने पुछा।
रवि बोला , ” सर , मेरा पास्ट बहुत ही खराब रहा है , मेरी लाइफ में कुछ बड़ी ही दुखदायी घटनाएं हुई हैं , मैं उन्ही के बारे में सोच कर परेशान रहता हूँ…..”
सर ने ध्यान से रवि की बातें सुनी और उसे संडे को घर पे बुलाया।
रवि नियत समय पर सर के घर पहुँच गया।
” रवि क्या तुम शिकंजी पीना पसंद करोगे ,?” सर ने पुछा।
“जी। ” रवि ने कहा।
सर ने शिकंजी बनाते वक्त जानबूझ कर नमक अधिक डाल दिया और चीनी की मात्रा कम ही रखी।
शिकंजी का एक घूँट पीते ही रवि ने अजीब सा मुंह बना लिया।
सर ने पुछा , ” क्या हुआ , तुम्हे ये पसंद नहीं आया क्या ?”
” जी, वो इसमे नमक थोड़ा अधिक पड़ गया है….” रवि अपनी बात कह ही रहा था की सर ने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा , ” ओफ़-ओ , कोई बात नहीं मैं इसे फेंक देता हूँ , अब ये किसी काम की नहीं …”
ऐसा कह कर सर गिलास उठा ही रहे थे कि रवि ने उन्हें रोकते हुए कहा , ” सर नमक थोड़ा सा अधिक हो गया है तो क्या , हम इसमें थोड़ी और चीनी मिला दें तो ये बिलकुल ठीक हो जाएगा। “
” बिलकुल ठीक रवि यही तो मैं तुमसे सुनना चाहता था….अब इस स्थिति को तुम अपनी लाइफ से कम्पेयर करो , शिकंजी में नमक का ज्यादा होना लाइफ में हमारे साथ हुए बैड एक्सपेरिएन्सेस की तरह है…. और अब इस बात को समझो , शिकंजी का स्वाद ठीक करने के लिए हम उसमे में से नमक नहीं निकाल सकते , इसी तरह हम अपने साथ हो चुकी दुखद घटनाओं को अपने जीवन से अलग नहीं कर सकते , पर जिस तरह हम चीनी डाल कर शिकंजी का स्वाद ठीक कर सकते हैं उसी तरह पुरानी कड़वाहट मिटाने के लिए लाइफ में भी अच्छे अनुभवों की मिठास घोलनी पड़ती है।
यदि तुम अपने भूत का ही रोना रोते रहोगे तो ना तुम्हारा वर्तमान सही होगा और ना ही भविष्य उज्जवल हो पायेगा। “, सर ने अपनी बात पूरी की .
रवि को अब अपनी गलती का एहसास हो चुका था , उसने मन ही मन एक बार फिर अपने जीवन को सही दिशा देने का प्रण लिया।
Sunday, May 24, 2015
सौ ऊंट
अजय राजस्थान के किसी शहर में रहता था . वह ग्रेजुएट था और एक प्राइवेट कंपनी में जॉब करता था . पर वो अपनी ज़िन्दगी से खुश नहीं था , हर समय वो किसी न किसी समस्या से परेशान रहता था और उसी के बारे में सोचता रहता था .
एक बार अजय के शहर से कुछ दूरी पर एक फ़कीर बाबा का काफिला रुका हुआ था . शहर में चारों और उन्ही की चर्चा थी , बहुत से लोग अपनी समस्याएं लेकर उनके पास पहुँचने लगे , अजय को भी इस बारे में पता चला, और उसने भी फ़कीर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया .
छुट्टी के दिन सुबह -सुबह ही अजय उनके काफिले तक पहुंचा . वहां सैकड़ों लोगों की भीड़ जुटी हुई थी , बहुत इंतज़ार के बाद अजय का नंबर आया .
वह बाबा से बोला ,” बाबा , मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूँ , हर समय समस्याएं मुझे घेरी रहती हैं , कभी ऑफिस की टेंशन रहती है , तो कभी घर पर अनबन हो जाती है , और कभी अपने सेहत को लेकर परेशान रहता हूँ …. बाबा कोई ऐसा उपाय बताइये कि मेरे जीवन से सभी समस्याएं ख़त्म हो जाएं और मैं चैन से जी सकूँ ?
बाबा मुस्कुराये और बोले , “ पुत्र , आज बहुत देर हो गयी है मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर कल सुबह दूंगा …लेकिन क्या तुम मेरा एक छोटा सा काम करोगे …?”
“ज़रूर करूँगा ..”, अजय उत्साह के साथ बोला .
“देखो बेटा , हमारे काफिले में सौ ऊंट हैं , और इनकी देखभाल करने वाला आज बीमार पड़ गया है , मैं चाहता हूँ कि आज रात तुम इनका खयाल रखो …और जब सौ के सौ ऊंट बैठ जाएं तो तुम भी सो जाना …”, ऐसा कहते हुए बाबा अपने तम्बू में चले गए ..
अगली सुबह बाबा अजय से मिले और पुछा , “ कहो बेटा , नींद अच्छी आई .”
“कहाँ बाबा , मैं तो एक पल भी नहीं सो पाया , मैंने बहुत कोशिश की पर मैं सभी ऊंटों को नहीं बैठा पाया , कोई न कोई ऊंट खड़ा हो ही जाता …!!!”, अजय दुखी होते हुए बोला .”
“ मैं जानता था यही होगा …आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ है कि ये सारे ऊंट एक साथ बैठ जाएं …!!!”, “ बाबा बोले .
अजय नाराज़गी के स्वर में बोला , “ तो फिर आपने मुझे ऐसा करने को क्यों कहा ”
बाबा बोले , “ बेटा , कल रात तुमने क्या अनुभव किया , यही ना कि चाहे कितनी भी कोशिश कर लो सारे ऊंट एक साथ नहीं बैठ सकते … तुम एक को बैठाओगे तो कहीं और कोई दूसरा खड़ा हो जाएगा इसी तरह तुम एक समस्या का समाधान करोगे तो किसी कारणवश दूसरी खड़ी हो जाएगी .. पुत्र जब तक जीवन है ये समस्याएं तो बनी ही रहती हैं … कभी कम तो कभी ज्यादा ….”
“तो हमें क्या करना चाहिए ?” , अजय ने जिज्ञासावश पुछा .
“इन समस्याओं के बावजूद जीवन का आनंद लेना सीखो … कल रात क्या हुआ , कई ऊंट रात होते -होते खुद ही बैठ गए , कई तुमने अपने प्रयास से बैठा दिए , पर बहुत से ऊंट तुम्हारे प्रयास के बाद भी नहीं बैठे …और जब बाद में तुमने देखा तो पाया कि तुम्हारे जाने के बाद उनमे से कुछ खुद ही बैठ गए …. कुछ समझे …. समस्याएं भी ऐसी ही होती हैं , कुछ तो अपने आप ही ख़त्म हो जाती हैं , कुछ को तुम अपने प्रयास से हल कर लेते हो …और कुछ तुम्हारे बहुत कोशिश करने पर भी हल नहीं होतीं , ऐसी समस्याओं को समय पर छोड़ दो … उचित समय पर वे खुद ही ख़त्म हो जाती हैं …. और जैसा कि मैंने पहले कहा … जीवन है तो कुछ समस्याएं रहेंगी ही रहेंगी …. पर इसका ये मतलब नहीं की तुम दिन रात उन्ही के बारे में सोचते रहो … ऐसा होता तो ऊंटों की देखभाल करने वाला कभी सो नहीं पाता…. समस्याओं को एक तरफ रखो और जीवन का आनंद लो… चैन की नींद सो … जब उनका समय आएगा वो खुद ही हल हो जाएँगी …पुत्र … ईश्वर के दिए हुए आशीर्वाद के लिए उसे धन्यवाद करना सीखो पीड़ाएं खुद ही कम हो जाएंगी …” फ़कीर बाबा ने अपनी बात पूरी की .
Saturday, May 23, 2015
खाली डिब्बा
मैनेजमेंट की शिक्षा प्राप्त कर रहे कुछ स्टूडेंट्स को प्रॉब्लम सॉल्विंग स्किल्स डेवलप करने के बारे में बताया जा रहा था। कुछ देर पढ़ाने के बाद प्रोफेसर ने बच्चों को एक केस स्टडी सोल्व करने को दी।
जापान की एक साबुन बनाने वाली कम्पनी अपनी क्वालिटी और वर्ल्ड क्लास प्रोसेसेज के लिए जानी जाती थी। पर आज उनके सामने एक अजीब समस्या आ खड़ी हुई , उन्हें कम्प्लेंट मिली की एक कस्टमर ने जब साबुन का डिब्बा खरीदा तो वो खाली था। कंप्लेंट की जांच की गयी तो पता चला चूक कंपनी के तरफ से ही हुई थी , असेंबली लाइन से जब साबुन डिलीवरी डिपार्टमेंट को भेजे जा रहे थे तब एक डिब्बा खाली ही चला गया।
इस घटना से कम्पनी की काफी किरकिरी हुई। कम्पनी के अधिकारी बड़े परेशान हुए कि आखिर ऐसा कैसे हो गया। तुरंत एक हाई लेवल मीटिंग बुलाई गयी , गहन चर्चा हुई , और भविष्य में ऐसी घटना ना हो इसके लिए लोगों से उपाए मांगे गए। बहुत विचार-विमर्श के बाद निश्चय किया गया कि असेंबली लाइन के अंत में एक एक्स-रे मशीन लगायी जायेगी जो एक हाई रेसोलुशन मॉनिटर से कनेक्टेड होगी। मॉनिटर के सामने बैठा व्यक्ति देख पायेगा की डिब्बा खाली है या भरा।
कुछ ही दिनों में ये सिस्टम इम्प्लीमेंट कर दिया गया, पर जब एक छोटी रैंक के कर्मचारी को इस समस्या का पता चला तो उसने इस समस्या का हल एक बड़े ही सस्ते और आसान तरीके से निकाल दिया। एक ऐसा तरीका जिसमे ना लाखों की मशीन खरीदने का खर्च था और ना ही किसी आदमी को रखने की ज़रुरत।
सोचिये अगर आपके सामने ये समस्या आती तो आप क्या करते ?
उस आदमी ने ये किया – उसने एक हाई पावर इलेक्ट्रिकल फैन खरीदा और असेंबली लाइन के सामने लगा दिया , अब हर एक डिब्बे को पंखे की तेज हवा के सामने से होकर गुजरना पड़ता और जैसे ही कोई खाली डिब्बा सामने आता हवा उसे उड़ा कर दूर फेंक देती।
फ्रेंड्स, इस तरह के सोल्युशन को हम आउट ऑफ़ द बॉक्स या क्रिएटिव थिंकिंग कहते हैं। और सबसे अच्छी बात ये है कि इसका किताबी ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं होता। हममें से हर एक व्यक्ति अपनी समस्याओं को सरल तरीकों से सुलझा सकता है पर शायद हम सबसे पहले दिमाग में आने वाले हल को ही पकड़ कर बैठ जाते हैं। आइये इस केस स्टडी से प्रेरणा लेते हुए हम भी अपनी समस्याओं के नए-नए समाधान ढूंढें और इस जीवन को सरल बनाएं।
दूसरा दीपक
एक बार की बात है , मगध साम्राज्य के सेनापति किसी व्यक्तिगत काम से चाणक्य से मिलने पाटलिपुत्र पहुंचे । शाम ढल चुकी थी , चाणक्य गंगा तट पर अपनी कुटिया में, दीपक के प्रकाश में कुछ लिख रहे थे।
कुछ देर बाद जब सेनापति भीतर दाखिल हुए, उनके प्रवेश करते ही चाणक्य ने सेवक को आवाज़ लगायी और कहा , ” आप कृपया इस दीपक को ले जाइए और दूसरा दीपक जला कर रख दीजिये।”
सेवक ने आज्ञा का पालन करते हुए ठीक वैसा ही किया।
जब चर्चा समाप्त हो गयी तब सेनापति ने उत्सुकतावश प्रश्न किया-“ हे महाराज मेरी एक बात समझ नही आई ! मेरे आगमन पर आपने एक दीपक बुझवाकर रखवा दिया और ठीक वैसा ही दूसरा दीपक जला कर रखने को कह दिया .. जब दोनों में कोई अंतर न था तो ऐसा करने का क्या औचित्य है ?”
इस पर चाणक्य ने मुस्कुराते हुए सेनापति से कहा- “भाई पहले जब आप आये तब मैं राज्य का काम कर रहा था, उसमे राजकोष का ख़रीदा गया तेल था , पर जब मैंने आपसे बात की तो अपना दीपक जलाया क्योंकि आपके साथ हुई बातचीत व्यक्तिगत थी मुझे राज्य के धन को व्यक्तिगत कार्य में खर्च करने का कोई अधिकार नही, इसीलिए मैंने ऐसा किया। ”
उन्होंने कहना जारी रखा-“ स्वदेश से प्रेम का अर्थ है अपने देश की वस्तु को अपनी वस्तु समझकर उसकी रक्षा करना..ऐसा कोई काम मत करो जिससे देश की महानता को आघात पहुचे, प्रत्येक देश की अपनी संस्कृति और आदर्श होते हैं.. उन आदर्शों के अनुरूप काम करने से ही देश के स्वाभिमान की रक्षा होती है। ”
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